‘पहले आप’ – Brahma Baba Second Step

बाप ऊंचे ते ऊंचा है, बच्चों का लक्ष्य बहुत ऊंचा है.  तो बाप समान बनने का लक्ष्य कितना ऊंचा है

महादानी और वरदानी ही महारथी

विश्व-कल्याणी और महावरदानी शिव बाबा महारथी बच्चों को देख बोले:-

महारथियों की यह विशेषता है कि उनमें मैं-पन का अभाव होगा। मैं निमित्त हूँ और सेवाधारी हूँ – यह नैचुरल स्वभाव होगा। स्वभाव बनाना नहीं पड़ता है। स्वभाव-वश संकल्प, बोल और कर्म स्वत: ही होता है। महारथियों के हर कर्त्तव्य में विश्वकल् याण की भावना स्पष्ट रूप से दिखाई देगी। उसका प्रैक्टिकल सबूत व प्रमाण हर बात में अन्य आत्मा को आगे बढ़ाने के लिए पहले आप’ का पाठ पक्का होगा। ‘पहले मैं नहीं’। ‘आप’ कहने से ही उस आत्मा के कल्याण के निमित्त बन जायेंगे। ऐसे महारथी जिनकी ऐसी श्रेष्ठ आत्मा है और ऐसा श्रेष्ठ स्वभाव हो, ऐसे ही बाप समान गाये जाते हैं।

महारथी अर्थात् महादानी। अपने समय का, अपने सुख के साधनों का, अपने गुणों का और अपनी प्राप्त हुई सर्व शक्तियों का भी अन्य आत्माओं की उन्नति-अर्थ दान करने वाला – उसको कहते हैं महादानी। ऐसे महादानी के संकल्प और बोल स्वत: ही वरदान के रूप में बन जाते हैं। जिस आत्मा के प्रति जो संवल्प करेंगे या जो बोल बोलेंगे वह उस आत्मा के प्रति वरदान हो जायेगा। क्योंकि महादानी अर्थात् त्याग और तपस्यामूर्त्त होना। इसी कारण त्याग, तपस्या और महादान का प्रत्यक्ष फल उनका संकल्प वरदान रूप हो जाता है। इसलिए महारथी की महिमा ‘महादानी और वरदानी’ गाई हुई है। ऐसे महारथियों का संगठन लाइट-हाउस और माइट-हाउस का काम करेगा। ऐसी तैयारी हो रही है ना। ऐसा संगठन तैयार होना अर्थात् जयजयकार होना और फिर हाहाकार होना। यह दृश्य भी वन्डरफुल होगा। एक तरफ अति हाहाकार और दूसरी तरफ फिर जयजयकार।

 

विधाता, वरदाता-पन की स्टेज

विधाता और वरदाता – यह दोनों ही गुण अपने में अनुभव करते हो? जैसे बाप विधाता भी है और वरदाता भी है, वैसे ही अपने को भी दोनों ही प्राप्ति-स्वरूप समझते हो? जितना-जितना वरदाता बनते जायेंगे उतना ही वरदाता बन वरदान देने की शक्ति बढ़ती जायेगी। तो दोनों ही अनुभव होते हैं वा अभी सिर्फ विधाता का पार्ट है, अन्त में वरदाता का पार्ट होगा? क्या समझती हो? (कोई ने कहा दोनों पार्ट अभी चल रहे हैं, कोई ने कहा अभी एक पार्ट चल रहा है) वरदान किन आत्माओं को देते हो और वरदाता किसके लिए बनते हो? एक होता है नॉलेज को देना, दूसरा है वरदान रूप में देना। तो विधाता हो या वरदाता हो? किन्हों को वरदान देती हो? विधाता अर्थात् ज्ञान देने वाले तो बनते ही हो, लेकिन कहाँ विधाता के साथ- साथ वरदाता भी बनना पड़ता है। वह कब? जब कोई ऐसी आत्मा हिम्मतहीन, निर्बल लेकिन इच्छुक होती है, चाहना होती है कि हम कुछ प्राप्ति करें। ऐसी आत्माओं के लिए ज्ञान-दाता बनने के साथ-साथ आप विशेष रूप से उस आत्मा को बल देने के लिए शुभ-भावना रखते हो वा शुभचिन्तक बनते हो। तो विधाता के साथ-साथ वरदाता भी बनते हो। एक्स्ट्रा बल अपनी तरफ से उनको वरदान के रूप में देते हो। तो वरदान भी देना होता और दाता भी बनना होता है। इसलिए दोनों ही हो। यह अनुभव कब किया है? भक्ति मार्ग में साक्षात्कार द्वारा वरदान प्राप्त होता है क्योंकि वह आत्माएं इतनी निर्बल होती हैं जो ज्ञान धारण नहीं कर सकतीं स्वयं पुरुषार्थी नहीं बन सकतीं। इसलिए वरदान की इच्छा रखती हैं, और वरदान रूप में उनको कुछ-न-कुछ प्राप्ति होती है। इस रीति जो कमज़ोर आत्माएं आपके सामने आती हैं, जिन आत्माओं की इच्छा को देखकर तरस की, रहम की भावना आती है। रहमदिल बन अपनी सभी शक्ति की मदद दे उनको ऊंचा उठाना – यह है वरदान का रूप। अभी बताओ कि दोनों ही हो या एक? कोई आत्माओं के प्रति आप लोगों को विशेष प्रोग्राम भी रखने पड़ते हैं, क्योंकि अपनी शक्ति से वह धारण नहीं कर पाते हैं। तो शक्ति का वरदान देने वाली शिव-शक्तियां हो।

 

वरदानीमूर्त बनने के लिए सर्व शक्तियों को अपने में देखना चाहिए कि इतना स्टॉक जमा किया है जो दूसरे को दे सकूं? अगर जमा ही नहीं किया होगा तो दूसरे को क्या देंगे! तो वरदानीमूर्त बनने के लिए सर्व शक्तियों को अपने में इतना जमा करना पड़े जो दूसरे को दे सकें। इतना जमा का खाता है? वा कमाया और खाया, यह रिजल्ट है? एक होता है कमाया और खाया – दूसरा होता है जमा करना और तीसरा होता है जो इतना भी नहीं कमा सकते जो स्वयं को भी चला सकें, दूसरे की मदद ले अपने को चलाना पड़ता।

 

आत्माओं द्वारा सम्बन्ध वा सम्पर्क वाली आत्माओं का रिगार्ड – इसका अर्थ है हर आत्मा को चाहे ब्राह्मण आत्मा, चाहे अज्ञानी आत्मा हो लेकिन हर आत्मा के प्रति श्रेष्ठ भावना अर्थात् ऊंचे उठाने की वा आगे बढ़ाने की भावना हो, विश्व कल्याण की कामना हो इसी धारणा से हर आत्मा से सम्पर्क में आना यह है रिगार्ड रखना। सदा आत्मा के गुणों वा विशेषतओं को देखना – अवगुण को देखते हुए न देखना वा उससे भी ऊंचा अपनी शुभ वृत्ति से वा शुभचिन्तक स्थिति से अन्य के अवगुण को भी परिवर्तन करना इसको कहा जाता है आत्मा का आत्मा प्रति रिगार्ड। सदा अपने स्मृति की समर्थी द्वारा अन्य आत्माओं का सहयोगी बनना यह है रिगार्ड। सदा पहले आप’ का मंत्र संकल्प और कर्म में लाना, किसी की भी कमजोरी वा अवगुण को अपनी कमजोरी वा अवगुण समझ वर्णन करने के बजाए वा फैलाने के बजाए समाना और परिवर्तन करना यह है रिगार्ड। किसी की भी कमजोरी की बड़ी बात को छोटा करना, पहाड़ को राई बनाना चाहिए न कि राई को पहाड़ बनाना है। इसको कहा जाता है रिगार्ड। दिलशिकस्त को शक्तिवान बनाना – संग के रंग में नहीं आना – सदा उमंग उल्लास में लाना इसको कहा जाता है रिगार्ड।

 

सर्विस की सफलता का स्वरुप यही है कि सर्व आत्माओं को बाप के स्नेही और बाप के कर्तव्य में सहयोगी और पुरुषार्थ में उन आत्माओं को शक्तिरूप बनाना। यह है सर्विस की सफलता का स्वरुप। जिन आत्माओं की सर्विस करो उन आत्माओं में यह तीनों ही क्वालिफिकेशन प्रत्यक्ष रूप में देखने में आनी चाहिए। अगर तीनों में से कोई भी गुण की कमी है तो सर्विस की सफलता की भी कमी है।

किसी को ‘हाँ जी’ कहकर, किसी को पहले आप’ कह कर सेवा करने का भी महत्त्व है।

एक बात विशेष ध्यान में यह रखनी है कि अपने रिकॉर्ड को ठीक रखने के लिए सर्व को रिगार्ड दो। जितना जो सर्व को रिगार्ड देता है उतना ही अपना रिकॉर्ड ठीक रख सकता है। दूसरे का रिगार्ड रखना अपना रिकॉर्ड बनाना है। अगर रिगार्ड कम देते हैं तो अपने रिकॉर्ड में कमी करते हैं। इसलिए इस मुख्य बात की आवश्यकता है। समझा। जैसे यज्ञ के मददगार बनना ही मदद लेना है वैसे रिगार्ड देना ही रिगार्ड लेना है। देते हैं लेने के लिए। एक बार देना अनेक बार लेने के हक़दार बन जाते हैं। जैसे कहते हैं छोटों को प्यार और बड़ों को रिगार्ड। लेकिन सभी को बड़ा समझ रिगार्ड देना यही सर्व के स्नेह को प्राप्त करने का साधन है। यह बात भी विशेष ध्यान देने योग्य है। हर बात में पहले आप। यह वृत्ति, दृष्टि और वाणी तथा कर्म में लानी चाहिए। जितना पहले आप कहेंगे उतना ही विश्व के बाप समान बन सकेंगे।

विश्व के बाप समान का अर्थ क्या है? एक तो विश्व के बाप समान बनना। दूसरा जब विश्व राजन बनेंगे तो भी विश्व के बाप ही कहलायेंगे ना। विश्व के राजन विश्व के बाप हैं ना। तो विश्व के बाप भी बनेंगे और विश्व के बाप समान भी बनेंगे। किससे? पहले आप करने से। समझा।

 

कौन सा एक गुण परमार्थ और व्यवहार दोनों में ही सर्व का प्रिय बना देता है?

उत्तर:- एक दो को आगे बढ़ाने का गुण अर्थात् ‘पहले आप” का गुण परमार्थ और व्यवहार दोनों में ही सर्व का प्रिय बना देता है। बाप का भी यही मुख्य गुण है। बाप कहते – ‘बच्चे पहले आप।’ तो इसी गुण में फालो फादर।

 

जैसे आप लोग इस दुनिया में आंखों की नजर के चश्मे का दृष्टान्त देते हैं; जिस रंग का चश्मा पहनेंगे वही दिखाई देगा। ऐसे यह जैसी वृत्ति होती है, तो वृत्ति दृष्टि को बदलती है, दृष्टि – सृष्टि को बदलती है। अगर वृत्ति का बीज सदा ही श्रेष्ठ है तो विधि और सिद्धि सफलतापूर्वक है ही। तो पहले वृत्ति के फाउन्डेशन को चेक करो। उसको श्रेष्ठ वृत्ति कहा जाता है। अगर किसी सम्बन्ध-सम्पर्क में श्रेष्ठ वृत्ति के बजाए मिक्स है तो भल कितनी भी विधि अपनाओ लेकिन सिद्धि नहीं होगी। क्योंकि बीज है वृत्ति और वृक्ष है विधि और फल है सिद्धि। अगर बीज कमज़ोर है तो फल चाहे कितना भी विस्तार वाला हो लेकिन सिद्धि रूपी फल नहीं होगा। इसी वृत्ति और विधि के ऊपर बापदादा बच्चों के प्रति एक विशेष रूह-रूहान कर रहे थे।

 

जो सबसे ज्यादा संस्कार मिलाने की डान्स करता, बाप का सहयोगी बनता वही फर्स्ट जन्म में श्रीकृष्ण के साथ हाथ मिलाकर डान्स करेगा। डान्स करनी है ना? संस्कारों की रास मिलाने का सबसे सहज तरीका है – स्वयं नम्रचित बन जाओ और दूसरे को श्रेष्ठ सीट दे दो। उनको सीट पर बिठायेंगे तो वह आपको स्वत: ही उतरकर बिठा देगा। अगर आप बैठने की कोशिश करेंगे तो वह बैठने नहीं देगा। लेकिन आप उसे बिठायेंगे तो वह आपेही उतरकर आपको बिठायेगा। तो बिठाना ही बैठना हो जायेगा। ‘पहले आप” का पाठ पक्का हो। फिर संस्कार सहज ही मिल जायेंगे। सीट भी मिल जायेगी, रास भी हो जायेगी। और भविष्य में भी रास करने का चान्स मिल जायेगा तो कितनी सहज बात हैं।

महानता प्राप्त करना अर्थात् निर्मानता धारण करना। निर्मान ही सर्व महान् है। पहले आप’ करना ही स्वमान सर्व से प्राप्त करने का आधार है। महान बनने का यह मन्त्र वरदान रूप में सदा साथ रखना और वरदानों से पलते, उड़ते मंजल पर पहुँचना। मेहनत तब करते हैं जबकि वरदानों को कार्य में नहीं लगाते। अगर वरदानों से पलते रहें, वरदानों को कार्य में लगाते रहें तो मेहनत समाप्त हो जायेगी। सदा सफलता, सदा सहज सन्तुष्टता का अनुभव करते और कराते रहेंगे। वरदानों से उड़ते चलो, वरदानों की पालना दो और वरदाता, विधाता से जो प्राप्ति की है, उसका प्रत्यक्षफल दिखाओ।

 

जितना निर्मान रहेंगे, उतना निर्माण का कार्य सफल होगा। अगर निर्मानता नहीं तो निर्माण नहीं कर सकते। निर्माण करने के लिये पहले निर्मान बनना पड़ेगा। इसलिये एक सलोगन सदा याद रखना-कोई भी कार्य हो, कोई भी सरकमस्टान्सिज सामने हों लेकिन सदैव जैसे अज्ञान काल में कहावत है कि पहले आप’ अर्थात् ‘दूसरों को आगे बढ़ाना स्वयं को आगे बढ़ाना है’। स्वयं का झुकना ही विश्व को अपने आगे झुकाना है। इसलिये सदैव एक दो में यही वृत्ति, दृष्टि और वाणी रहे कि पहले आप’। यह सलोगन कब भूलना नहीं। जैसे बापदादा ने कभी भी संकल्प व बोल में व कर्म में यह नहीं दिखलाया कि पहले ‘मैं’। सदैव बच्चों को पहले लाये-इस दृष्टि व वृत्ति को आगे रखा। इस प्रकार ‘फॉलो-फादर’ करने वाली हर आत्मा इस बात में ‘फॉलो फादर’ करेगी तो सफलता 100% गले की माला बनेगी। अगर पहले आप की बजाये पहले मैं’ यह संकल्प भी किया, अगर एक आत्मा ने भी यह संकल्प किया व वाणी और कर्म में भी लाया तो मानो सफलता की माला का एक मणका टूटा। माला से एक मणका भी यदि टूट जाता है तो सारी माला पर प्रभाव पड़ता है। इसलिये स्वयं को तो इस बात में पक्का करना ही है लेकिन स्वयं के साथ-साथ संगठन को भी इस पाठ में व इस सलोगन में सदा सफल बनाने के प्रयत्न में रहना है। जिससे विजय माला का एक मणका भी अलग न होने पाये। जब ऐसा पुरूषार्थ करेंगे व यह कार्य करेंगे तब विजय का झण्डा अपनी राजधानी के ऊपर खड़ा कर सकेंगे।

 

स्व परिवर्तन में पहले मैं’ और सेवा में पहले आप’ करने वाले – ऐसे होलीहंस ब्राह्मण आत्माओं

स्व-उन्नति के प्रति वा सेवा की सफलता के प्रति एक रमणीक स्लोगन रूह-रूहान में बता रहे थे। आप सी यह स्लोगन एक दो में कहते भी होद्य हर कार्य में पहले आप’ – यह स्लोगन याद है ना? एक है पहले आप’, दूसरा है पहले मैं’। दोनों स्लोगन पहले आप’ और पहले मैं’ – दोनों आवश्यक हैं। लेकिन बापदादा रूह-रूहान करते मुस्करा रहे थे। जहाँ पहले मैं’ होना चाहिए वहाँ पहले आप’ कर देते, जहाँ पहले आप’ करना चाहिए वहाँ पहले मैं’ कर देते। बदली कर देते हैं। जब कोई स्व-परिवर्तन की बात आती है तो कहते हो पहले आप’, यह बदले तो मैं बदलूँ। तो पहले आप हुआ ना। और जब कोई सेवा का या कोई ऐसी परिस्थिति को सामना करने का चांस बनता है तो कोशिश करते हैं – पहले मैं, मैं भी तो कुछ हूँ, मुझे भी कुछ मिलना चाहिए। तो जहाँ पहले आप’ कहना चाहिए, वहाँ ‘मैं’ कह देते। सदा स्वमान में स्थित हो दूसरे को स्वमान देना अर्थात् पहले आप’ करना। सिर्फ मुख से कहो पहले आप’ और कर्म में अन्तर हो – यह नहीं। स्वमान में स्थित हो स्वमान देना है। स्वमान देना वा स्वमान में स्थित होना, उसकी निशानी क्या होगी? उसमें दो बातें सदा चेक करो –

एक होती है अभिमान की वृत्ति, दूसरी है अपमान की वृत्ति। जो स्वमान में स्थित होता है और दूसरे को स्वमान देने वाला दाता होता, उसमें यह दोनों वृत्ति नहीं होगी – न अभिमान की, न अपमान की। यह तो करता ही ऐसा है, यह होता ही ऐसा है, तो यह भी रॉयल रूप का उस आत्मा का अपमान है। स्वमान में स्थित होकर स्वमान देना इसको कहते हैं पहले आप’ करना। समझा? और जो भी स्व-उन्नति की बात हो उसमें सदा पहले मैं’ का स्लोगन याद हो तो क्या रिजल्ट होगी? पहले मैं अर्थात् ‘जो ओटे सो अर्जुन’। अर्जुन अर्थात् विशेष आत्मा, न्यारी आत्मा, अलौकिक आत्मा, अलौकिक विशेष आत्मा। जैसे ब्रह्मा बाप सदा पहले मैं’ के स्लोगन से जो ओटे सो अर्जुन बना ना, अर्थात् नम्बरवन आत्मा। नम्बरवन का सुनाया – नम्बरवन डिवीजन। वैसे नम्बरवन तो एक ही होगा ना। तो स्लोगन हैं दोनों जरूरी। लेकिन सुनाया ना – नम्बर किस आधार पर बनते। जो समय प्रमाण कोई भी विशेषता को कार्य में नहीं लगाते तो नम्बर आगे पिछे हो जाता। समय पर जो कार्य में लगाता है, वह विन करता है अर्थात् वन हो जाता। तो यह चेक करो। क्योंकि इस वर्ष स्व की चेकिंग की बातें सुना रहे हैं। भिन्न-भिन्न बातें सुनाई हैं ना? तो आज इन बातों को चेक करना – आप’ के बजाए ‘मैं’, ‘मैं’ के बजाए आप’ तो नहीं कर देते हो? इसको कहते हैं यथार्थ विधि। जहाँ यथार्थ विधि है वहाँ सिद्धि है ही। और इस वृत्ति की विधि सुनाई। दो बातों की चेकिंग करना – न अभिमान की वृत्ति हो, न अपमान की। जहाँ यह दोनों की अप्राप्ति है वहाँ ही ‘स्वमान’ की प्राप्ति है। आप कहो न कहो, सोचो न सोचो लेकिन व्यक्ति, प्रकृति – दोनों ही सदा स्वत: ही स्वमान देते रहेंगे। संकल्प-मात्र भी स्वमान के प्राप्ति की इच्छा से स्वमान नहीं मिलेगा। निर्मीण बनना अर्थात् पहले आप’ कहना। निर्मीन स्थिति स्वत: ही स्वमान दिलायेगी। स्वमान की परिस्थितियों में पहले आप’ कहना अर्थात् बाप समान बनना। जैसे ब्रह्मा बाप ने सदा ही स्वमान देने में पहले जगत् अम्बा पहले सरस्वती माँ, पीछे ब्रह्मा बाप रखा। ब्रह्मा माता होते हुए भी स्वमान देन्ो के अर्थ जगत् अम्बा माँ को आगे रखा। हर कार्य में बच्चों को आगे रखा और पुरूषार्थ की स्थिति में सदा स्वयं को पहले मैं’ इंजन के रूप में देखा। इंजन आगे होता है ना। सदा यह साकार जीवन में देखा कि जो मैं करूँगा मुझे देख सभी करेंगे। तो विधि, में, स्व-उन्नति में वा तीव्र पुरूषार्थ की लाइन में सदा पहले मैं’ रखा। तो आज विधि और सिद्धि की रेखायें चेक कर रहे थे। समझा? तो बदली नहीं कर देना। यह बदली करना माना भाग्य को बदली करना। सदा होलीहंस बन निर्णय शक्ति, परखने की शक्ति को समय पर कार्य में लगाने वाले विशाल बुद्धि बनो और सदा वृत्ति रूपी बीज को श्रेष्ठ बनाए विधि और सिद्धि सदा श्रेष्ठ अनुभव करते चलो।

 

ब्रह्मा बाप का निजी संस्कार कौन-सा था जो आप सबका भी वही संस्कार हो? ‘‘हाँ जी” के साथसाथ ‘पहले आप”, ‘पहले मैं” नहीं, पहले आप। जैसे ब्रह्मा बाप ने पहले जगत-अम्बा को आगे किया ना! कोई भी स्थान में पहले बच्चे, हर बात में बच्चों को अपने से आगे रखा। जगत-अम्बा को अपने आगे रखा। ‘पहले आप” वाला ही ‘‘हाँ जी” कर सकता है। इसलिए मुख्य बात है ‘पहले आप” लेकिन शुभ भावना से। कहने मात्र नहीं, लेकिन शुभचिन्तक की भावना से। शुभ भावना और श्रेष्ठ कामना के आधार से पहले आप’ करने वाला स्वयं ही पहले हो जाता है। पहले आप कहना ही पहला नम्बर होना है। जैसे बाप जगदम्बा को पहले किया, बच्चों को पहले किया लेकिन फिर भी नम्बरवन गया ना! इसमें कोई स्वार्थ नहीं रखा, नि:स्वार्थ पहले आप’ कहा, करके दिखाया। ऐसे ही पहले आप का पाठ पक्का हो। इसने किया अर्थात् मैंने किया। इसने क्यों किया, मैं ही करूँ, मैं क्यों नहीं करूँ, मैं नहीं कर सकता हूँ क्या! यह भाव नहीं। उसने किया तो भी बाप की सेवा, मैंने किया तो भी बाप की सेवा। यहाँ कोई को अपना-अपना धन्धा तो नहीं है ना! एक ही बाप का धंधा है। ईश्वरीय सेवा पर हो। लिखते भी हो गाडली सर्विस, मेरी सर्विस तो नहीं लिखते हो ना! जैसा बाप एक है, सेवा भी एक है, ऐसे ही इसने किया, मैंने किया वह भी एक। जो जितना करता, उसे और आगे बढ़ाओ। मैं आगे बढूँ, नहीं दूसरों को आगे बढ़ाकर आगे बढ़ो। सबको साथ लेकर जाना है ना! बाप के साथ सब जायेंगे अर्थात् आपस में भी तो साथ-साथ होंगे ना! जब यही भावना हरेक में आ जाए तो ब्रह्मा बाप की फोटो स्टेट कापी हो जाओ।

 

सदा मुख पर एक ही सफलता का मन्त्र हो – ‘पहले आप’’ – यह महामन्त्र मन से पक्का रहे। सिर्फ मुख के बोल हों कि पहले आप और अन्दर में रहे कि पहले मैं, ऐसे नहीं। ऐसे भी कई चतुर होते हैं मुख से कहते पहले आप, लेकिन अन्दर भावना पहले मैं की रहती है। यथार्थ रूप से, पहले मैं को मिटाकर दूसरे को आगे बढ़ाना सो अपना बढ़ना समझते हुए इस महामन्त्र को आगे बढ़ाते सफलता को पाते रहेंगे। समझा। यह मन्त्र और तावीज सदा साथ रहा तो प्रत्यक्षता का नगाड़ा बजेगा।

 

उदारता का अर्थ है सर्व आत्माओं के प्रति आगे बढ़ाने की उदारता होगी। पहले आप, ‘मैं-मैं’ नहीं। उदारता अर्थात् दूसरे को आगे रखना। जैसे ब्रह्मा बाप ने सदैव पहले जगदम्बा वा बच्चों को रखा – मेरे से भी तीखी जगदम्बा है, मेरे से भी तीखे यह बच्चे हैं। यह उदारता की भाषा है। और जहाँ उदारता है, स्वयं के प्रति आगे रहने की इच्छा नहीं है, वहाँ ड्रामा अनुसार स्वत: ही मनइच्छित फल प्राप्त हो ही जाता है। जितना स्वयं इच्छा मात्रम् अविद्या की स्थिति में रहते, उतना बाप और परिवार अच्छा, योग्य समझ उसको ही पहले रखते हैं। तो पहले आप मन से कहने वाले पीछे रह नहीं सकते। वह मन से पहले आप कहता तो सर्व द्वारा पहले आप हो ही जाता है। लेकिन इच्छा वाला नहीं। तो निश्चयबुद्धि की भाषा सदा उदारता वाली भाषा, सन्तुष्टता की भाषा, सर्व के कल्याण की भाषा। ऐसी भाषा वाले को कहेंगे- ‘निश्चयबुद्धि विजयी।’

 

बापदादा इस वर्ष देशविदेश की विधि का मिला हुआ प्रोग्राम चाहते हैं। विदेश वाले भी पीछे नहीं हटें और देश वाले भी पीछे नहीं हटें। विचार भी तो मिलाने हैं ना। एकदो को कहोपहले आप।भारत कितना बड़े दिल वाला है। जो भगवान को भी मेहमान बना सकते हैं वो कितने बड़े हो गये। तो भारत की विशेषता है एक तो सभी की बड़े दिल से मेहमान निवाजी करते हैं और दूसरा भारत स्थापना के निमित्त है। अगर भारत की बहनें विदेश सेवा में नहीं जातीं तो आप लोग कैसे आते? विदेश सेवा के अर्थ भारत की बहनें निमित्त बनी ना। तो भारत स्थापना के निमित्त है। और भारत ही आप सबको राज्य के साथी बनाने के निमित्त है। पहले आपको महल देंगे, पहले आपको रखेंगे। भारत फ्रीखदिल है, पहले आप’ करने वाले हैं। ‘मैंमैं’ करने वाले नहीं हैं। भारत सदा ही दानपुण्य करने में होशियार है। तो औरों को आगे बढ़ाना ये पुण्य है।

 

होते, चाहे सेवा में, चाहे सम्बन्धसम्पर्क में। एडजस्ट होने की कला को लक्ष्य बना दिया तो सबसे पहला नम्बर सम्पूर्ण एशिया वाले बनेंगे। यह शक्ति इतनी पावरफुल है। क्योंकि जिसमें एडजस्ट होने की शक्ति होगी उसमें सहनशक्ति, अन्तर्मुखता सब उसके बाल बच्चे बन जायेंगे। तो एशिया वालों ने मदर को चुन लिया है। सब आ जायेंगे। लेकिन इस लक्ष्य को प्रैक्टिकल में लाने के लिये एक बात सदा याद रखना कि पहले अपनी एडजस्टमेन्ट देखना, दूसरे की नहीं। मुझे पहले एडजस्ट होना है। सेवा में पहले आप होना चाहिये, दूसरों को साथी बनाओ, सहयोगी बनाओ, आगे बढ़ाओ, हिम्मत बढ़ाओ। लेकिन एडजस्ट पहले मेरे को होना है, दूसरे आप ही हो जायेंगे। अगर दूसरे को देखा तो स्वयं भी नहीं होंगे, दूसरा भी नहीं होगा। जो ओटे सो अर्जुन, मैं अर्जुन हूँ। दूसरा अर्जुन बने तो मैं भी अर्जुन बनूँ! नहीं, जो ओटे सो अर्जुन। वैसे भी एशिया में भिन्नभिन्न वैरायटी होने के कारण सेवा में भी प्लैन एडजस्ट करने पड़ते हैं। वेरायटी धर्म वाले भी एशिया में आते हैं। चाइना, जापान सब आता है ना। तो बौद्ध धर्म वाले, चाइनीज सबको एडजस्ट करना पड़ता है ना। उन्हों की मत न्यारी। क्रिश्चियन्स फिर भी उन्हों से नजदीक हैं, गॉड फादर को तो मानते हैं। तो बहुत अच्छा लक्ष्य रखा है इससे स्वयं में भी एडजस्ट हो जायेंगे, सेवा में भी एडजस्ट हो जायेंगे और दूसरों से भी हो जायेंगे। तो इनएडवांस मुबारक हो।

 

 

एक स्वयं को परखने की शक्ति, दूसरी स्वयं को परिवार्तित करने की शक्ति। इन दोनों शक्तियों की रिजल्ट में जितना तीव्र पुरुषार्थी तीव्र गति से आगे बढ़ना चाहते हैं, उतना बढ़ नहीं पाते। इन दोनों शक्तियों की कमी के कारण ही कोई-न-कोई रूकावट गति को तीव्र करने नहीं देती है। दूसरे को परखने की गति तीव्र है दूसरे को परिवर्तन होना चाहिये – यह संकल्प तीव्र है; इसमें पहले आप’ का पाठ पक्का है। जहाँ ‘पहले मैं’ होना चाहिये, वहाँ पहले आप’ है और जहाँ पहले आप’ होना चाहिये, वहाँ ‘पहले मैं’ है।

 

तो पहले आपका घर स्वर्ग बना है क्योंकि पहले घर फिर विश्व। तो कोई भी माता के पास आकर देखे तो घर में सुख-शान्ति है? तो दिखाई देगा, घर स्वर्ग बना

 

सन्तुष्टता का सबसे सहज आधार है ‘पहले आप’’। पहले आप कहते जाओ, साथी बनाते जाओ और आगे बढ़ते जाओ। पहले मैं नहीं, पहले आप

सदा पाण्डवों के लिए शक्तियों को और शक्तियों के लिए पाण्डवों को स्नेह है, रिगार्ड है और सदा रहेगा। शक्तियाँ पाण्डवों को आगे रखती हैं – इसमें ही सफलता है और पाण्डव शक्तियों को आगे रखते – इसमें ही सफलता है। पहले आप’ का पाठ दोनों को पक्का है। पहले आप’, पहले आप’ कहते खुद भी पहले आप’ हो जायेंगे। बाप बीच में है तो झगड़ा है ही नहीं। और हरेक की विशेषता एक दो से आगे हैं। इसलिए आप निमित्त आत्मायें हो।

 

लौकिक कहावत में यू.पी.की विशेषता है कि यू.पी. वाले पहले आपपहले आप’ का मन्त्र ज्यादा पढ़ते हैं। लेकिन आप ब्राह्मण कौनसा मन्त्र पढ़ते हो? पहले बाप। हर बात में पहले बाप। बाप याद आया तो सब कुछ आ गया। तो हर कर्म में पहले बाप की याद हो। इसलिये यू.पी. वाले सदा मस्तक में पदमपति, पदमापदम भाग्य की लकीर वाले। सदा मस्तक में ये पदमापदम भाग्यवान की लकीर चमकती हुई दिखाई दे। इसमें यू.पी. वाले नम्बर लेंगे ना? सदा भाग्यवान भव। अच्छा, स्थापना में दिल्ली का भी पार्ट है तो यू.पी. का भी विशेष पार्ट है। इसलिये विशेष भाग्यवान आत्मायें हैं।

 

दिल से जो समार्पित हैं तो सहयोग भी दिल से सामने आता है। जहाँ दिल का स्नेह है तो सहयोग मिलता है। स्नेह नहीं तो सहयोग नहीं। तो सबका सहयोग दिल से है ना? हरेक क्या समझता है? हमारा काम है या दादियों का काम है? हमारा मधुबन है या मधुबन वालों का मधुबन है? तो बाप भी कहते हैं पहले आप

 

 

पहले आप नहीं करना,

अभी अपने को निमित्त बनाये। इसमें दूसरों को पहले आप नहीं करे। पहले अपने को पहले आप करे। और दिल से उमंग से समझें कि मुझे “हे अर्जुन” बनना है। अर्जुन अर्थात् मास्टर ब्रह्मा। अवल अर्थात् अर्जुन।

 

जैसे भाग्य में अपने को आगे करते हो, वैसे त्याग में `पहले मैं’। जब त्याग में हरेक ब्राह्मण आत्मा `पहले मैं’ कहेगा तो भाग्य की माला सबके गले में पड़ जायेगी।

सेन्टर का वायुमण्डल चैतन्य मन्दिर हो। निगेटिव को पॉजिटिव बनाना इसमें पहले मैं। पहले आप नहीं करना, पहले मैं, क्योंकि बापदादा और एडवांस पार्टी और आजकल तो प्रकृति भी इन्तजार कर रही है। इन्तजाम करने वाले आप हो, आपको इन्तजार नहीं करना है, इन्तजाम करना है।

 

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