नष्टोमोहा

 

नष्टोमोहा बनने की भिन्न-भिन्न युक्तियां

अपने को हरेक स्मृति-स्वरूप समझते हो? स्मृति-स्वरूप हो जाने से स्थिति क्या बन जाती है और कब बनती है? स्मृति-स्वरूप तब बनते हैं जब नष्टोमोहा हो जाते हैं। तो ऐसे नष्टोमोहा स्मृति-स्वरूप बने हो कि अभी विस्मृति स्वरूप हो। स्मृति स्वरूप से विस्मृति में क्यों आ जाते हो? ज़रूर कोई-न-कोई मोह अर्थात् लगाव अब तक रहा हुआ है। तो क्या जो बाप से पहल-पहला वायदा किया है कि और संग तोड़ एक संग जोड़ेंगे; क्या यह पहला वायदा निभाने नहीं आता है? पहला वायदा ही नहीं निभायेंगे तो पहले नंबर के पूज्य में, राज्य-अधिकारी वा राज्य के सम्बन्ध में कैसे आवेंगे? क्या सेकेण्ड जन्म के राज्य में आना है? जो पहला वायदा ‘नष्टोमोहा होने का’ निभाते हैं वही पहले जन्म के राज्य में आते हैं। पहला वायदा वहो वा पहला पाठ कहो वा ज्ञान की पहली बात कहो वा पहला अलौकिक जन्म का श्रेष्ठ संकल्प कहो – क्या इसको निभाना मुश्किल लगता है? अपने स्वरूप में स्थित होना वा अपने आप की स्मृति में रहना – यह कोई जन्म में मुश्किल लगा? सहज ही स्मृति आने से स्मृति-स्वरूप बनते आये हो ना। तो इस अलौकिक जन्म के स्व स्वरूप को स्मृति में मुश्किल क्यों अनुभव करते हो? जबकि साधारण मनुष्य के लिये भी कहावत है कि मनुष्य आत्मा की विशेषता ही यह है कि मनुष्य जो चाहे वह कर सकता है। पशुओं और मनुष्यात्मा में मुख्य अन्तर यही तो है। तो जब साधारण मनुष्यात्मा जो चाहे सो करके दिखा रही है; तो क्या आप श्रेष्ठ मनुष्य आत्माएं, शक्ति-स्वरूप आत्माएं, नॉलेजफुल आत्माएं, बाप के समीप सम्पर्क में आने वाली आत्माएं, बाप की डायरेक्ट पालना लेने वाली आत्माएं, पूजनीय आत्माएं, बाप से भी श्रेष्ठ मर्तबा पाने वाली आत्माएं जो चाहे वह नहीं कर सकती हैं? तो साधारण और श्रेष्ठ में अन्तर ही क्या रहा? साधारण आत्माएं जो चाहे कर सकते हैं लेकिन जब चाहे, जैसे चाहे वैसे नहीं कर सकतीं। क्योंकि उन्हों में प्रकृति की पावर है, ईश्वरीय पावर नहीं है। ईश्वरीय पावर वाली आत्माएं जो चाहे, जब चाहे, जैसे चाहे वैसे कर सकते हैं। तो जो विशेषता है उसको प्रैक्टिकल में नहीं ला सकते हो? वा आप लोग भी अभी तक यही कहते हो कि चाहते तो नहीं हैं लेकिन हो जाता है जो चाहते हैं वह कर नहीं पाते हैं। यह बोल मास्टर सर्वशक्तिवान के वा श्रेष्ठ आत्माओं के नहीं हैं। साधारण आत्माओं का है। तो क्या अपने को साधारण आत्माएं कहला सकते हो? अपना अलौकिक जन्म, अलौकिक कर्म जो है उसको भूल जाते हो। किसी भी वस्तु से वा किसी भी व्यक्ति से कोई भी व्यक्त भाव से लगाव क्यों होता है? क्या जो भी वस्तु देखते हो, उन वस्तुओं की तुलना में जो अलौकिक जन्म की प्राप्ति है वह और यह वस्तुएं – उन्हों में रात-दिन का अन्तर नहीं अनुभव हुआ है क्या? क्या व्यक्त भाव से प्राप्त हुआ दु:ख-अशान्ति का अनुभव अब तक पूरा नहीं किया है क्या? जो भी व्यक्तियाँ देखते हो उन सर्व व्यक्तियों से पुरानी दुनिया के नातों को वा सम्बन्ध को इस अलौकिक जन्म के साथ समाप्त नहीं किया है? जब जन्म नया हो गया तो पुराने जन्म के व्यक्तियों के साथ पुराने सम्बन्ध समाप्त नहीं हो गये क्या? नये जन्म में पुराने सम्बन्ध का लगाव रहता है क्या। तो व्यक्तियों से भी लगाव रख ही कैसे सकते हो? जबकि वह जन्म ही बदल गया तो जन्म के साथ सम्बन्ध और कर्म नहीं बदला? वा तो यह कहो कि अब तक अलौकिक जन्म नहीं हुआ है। साधारण रीति से जहाँ जन्म होता है, जन्म के प्रमाण ही कर्म होता है, सम्बन्ध सम्पर्क होता है। तो यहाँ फिर जन्म अलौकिक और सम्बन्ध लौकिक से क्यों वा कर्म फिर लौकिक क्यों? तो अब बताओ, नष्टोमोहा होना सहज है वा मुश्किल है? मुश्किल क्यों होता है? क्योंकि जिस समय मोह उत्पन्न होता है उस समय अपनी शक्ल नहीं देखती हो? आईना तो मिला हुआ है ना। आईना साथ में नहीं रहता है क्या? अगर सिकल को देखेंगे तो मोह खत्म हो जावेगा। अगर यह देखने का अभ्यास पड़ जाये तो अभ्यास के बाद न चाहते भी बार-बार स्वत: ही आईने के तरफ खि्ांच जावेंगी। जैसे स्थूल में कइयों को आदत होती है बार-बार देखने की। प्रोग्राम नहीं बनाते लेकिन आटोमेटिकली आईने तरफ चले जाते हैं। क्योंकि अभ्यास है। यह भी नॉलेज रूपी दर्पण में, अपने स्वमान रूपी दर्पण में बार-बार देखते रहो तो देह-अभिमान से फौरन ही स्वमान में आ जायेंगे। जैसे स्थूल शरीर में कोई भी अन्तर मालूम होता है तो आइने में देखने से फौरन ही इसको ठीक कर देते हैं। वैसे ही इस अलौकिक दर्पण में जो वास्तव का स्वरूप है इसको देखते हुये जो देह-अभिमान में आने से व्यर्थ संकल्पों का स्वरूप, व्यर्थ बोल का स्वरूप वा व्यर्थ कर्म वा सम्बन्ध का स्वरूप स्पष्ट देखने से व्यर्थ को समर्थ में बदल लेते फिर यह मोह रहेगा क्या। और जब नष्टोमोहा हो जावेंगे तो नष्टोमोहा के साथ सदा स्मृति-स्वरूप स्वत: ही हो जायय्ेंगे। सहज नहीं हैं? जब सर्व प्राप्ति एक द्वारा होती है तो उस में तृप्त आत्मा नहीं होते हो क्या! कोई अप्राप्त वस्तु हो जाती है तब तो तृप्त नहीं होते हैं। तो क्या सर्व प्राप्ति का अनुभव नहीं होता है? अभी तृप्त आत्मा नहीं बने हो। जो बाप दे सकते हैं, क्या वह यह विनाशी आत्माएं इतने जन्मों में दे सकी है? जब अनेक जन्मों में भी अनेक आत्माएं वह चीज़ वह प्राप्ति नहीं करा सकी है और बाप द्वारा एक ही जन्म में प्राप्त होती है तो बताओ बुद्धि कहाँ जानी चाहिए? भटकाने वालों में, रूलाने वालों में, ठुकराने वालों में वा ठिकाना देने वालों में? जैसे आप और आत्माओं से बहुत प्रश्न करते हो ना। तो बाप का भी आप आत्माओं से यही एक प्रश्न है। इस एक प्रश्न का ही उत्तर अब तक दे नहीं पाये हो। जिन्होंने इस प्रश्न का उत्तर दिया है वह सदा के लिये प्रसन्न रहते हैं। जिन्होंने उत्तर नहीं दिया है वह बार-बार उतरती कला में उतरते ही रहते हैं। नष्टो मोहा बनने के लिये अपनी स्मृति स्वरूप को चेंज करना पड़ेगा। मोह तब जाता है जब यह स्मृति रहती है कि हम गृहस्थी हैं। हमारा घर, हमारा सम्बन्ध है तब मोह जाता है। यह तो इस हद के जिम्मेवारी को बेहद के जिम्मेवारी में परिवर्तन कर लो तो बेहद की जिम्मेवारी से हद के जिम्मेवारी स्वत: ही पूरी हो जावेंगी। बेहद को भूलकर और हद के ज़िम्मेवारी को निभाने के लिये जितना ही समय और संकल्प लगाती हो इतना ही निभाने के बजाय बिगाड़ते जाते हो। भले समझते हो कि हम फर्ज निभा रहे हैं वा कर्त्तव्य को सम्भाल रहे हैं। वह निभाना वा सम्भालना नहीं हैं। और ही अपने हद की स्मृति में रहने के कारण उन निमित बनी हुई आत्माओं के भी भाग्य बनाने के बजाय बिगाड़ने के निमित बनती हो। जो फिर वह आत्माएं भी आपके अलौकिक चलन को न देखते हुये अलौकिक बाप के साथ सम्बन्ध जोड़ने में वंचित रह जाते हैं। तो फर्ज के बजाय और ही अपने आप में भी मर्ज लगा देते हो। यह मोह का मर्ज है। और वही मर्ज अनेक आत्माओं में भी स्वत: ही लग जाता है। तो जिसको फर्ज समझ रही हो वह फर्ज बदलकर के मर्ज का रूप हो जाता है। इसलिये सदा अपने इस स्मृति को परिवर्तन करने का पुरूषार्थ करो। मैं गृहस्थी हूँ, फलाने बन्धन वाली हूँ वा मैं फलाने जिम्मेवारी वाली हूँ – उसके बजाय अपने मुख्य 5 स्वरूप स्मृति में लाओ। जैसे 5 मुखी ब्रह्मा दिखाते हैं ना। 3 मुख भी दिखाते हैं, 5 मुख भी दिखाते हैं। तो आप ब्राह्मणों को भी 5 मुख्य स्वरूप स्मृति में रहें तो मर्ज निकल विश्व के कल्य्याणकारी के फर्ज में चलें जायेंगे। वह स्वरूप कोनसे हैं जिस स्मृति-स्वरूप में रहने से यह सभी रूप भूल जावें? स्मृति में रखने के 5 स्वरूप बताओ। जैसे बाप के 3 रूप बताते हो वैसे आप के 5 रूप हैं – (1) मैं बच्चा हूँ (2) गॉडली स्टूडेन्ट हूँ(3) रूहानी यात्री हूँ (4) योद्धा हूँ और (5) ईश्वरीय वा खुदाई-खिदमतगार हूँ। यह 5 स्वरूप स्मृति में रहें। सवेरे उठने से बाप के साथ रूह-रूहान करते हो ना। बच्चे रूप से बाप के साथ मिलन मनाते हो ना। तो सवेरे उठने से ही अपना यह स्वरूप याद रहे कि मैं बच्चा हूँ। तो फिर गृहस्थी कहाँ से आवेगी? और आत्मा बाप से मिलन मनावे तो मिलन से सर्व प्राप्ति का अनुभव हो जाये। तो फिर बुद्धि यहाँ-वहाँ क्यों जावेगी? इससे सिद्ध है कि अमृतवेले की इस पहले स्वरूप की स्मृति की ही कमज़ोरी है। इसलिये अपने गिरती कला के रूप स्मृति में आते हैं। ऐसे ही सारे दिन में अगर यह पाँचों ही रूप समय- प्रति-समय भिन्न कर्म के प्रमाण स्मृति में रखो तो क्या स्मृति-स्वरूप होने से नष्टोमोहा: नहीं हो जावेंगे? इसलिये बताया — मुश्किल का कारण यह है जो सिकल को नहीं देखती हो। तो सदैव कर्म करते हुए अपने दर्पण में इन स्वरूपों को देखो कि इन स्वरूपों के बदली और स्वरूप तो नहीं हो गया। रूप बिगड़ तो नहीं गया। देखने से बिगड़े हुए रूप को सुधार लेंगे और सहज ही सदाकाल के लिये नष्टोमोहा: हो जावेंगे। समझा? अभी यह तो नहीं कहेंगे कि नष्टोमोहा: कैसे बने? नहीं। नष्टोमोहा: ऐसे बने। ‘कैसे’ शब्द को ‘ऐसे’ शब्द में बदल देना है। जैसे यह स्मृति में लाती हो कि हम ही ऐसे थे, अब फिर से ऐसे बन रहे हैं। तो ‘कैसे’ शब्द को ‘ऐसे’ में बदल लेना है। ‘कैसे बने’ इसके बजाये ‘ऐसे बने’, इसमें परिवर्तन कर लो तो जैसे थे वैसे बन जावेंगे। ‘कैसे’ शब्द खत्म हो ऐसे बन ही जावेंगे। अच्छा!

ऐसे सेकेण्ड में अपने को विस्मृति से स्मृति-स्वरूप में लाने वाले नष्टोमोहा सदा स्मृति-स्वरूप बनने वाले समर्थ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

 

18 जनवरी का दिवस ब्रह्मा बाप के सम्पूर्ण नष्टोमोहा स्मृति स्वरूप का रहा। जैसे गीता के 18 अध्याय का सार है – भगवान ने अर्जुन को नष्टोमोहा स्मृति स्वरूप बनाया। तो ये 18 का यादगार है कि ब्रह्मा बाप कितना ही बच्चों के प्रति अति स्नेही रहे, जो बच्चे अनुभवी हैं कि सदा सेवा के निमित्त बच्चों को कितना याद करते – अनुभव है ना! मोह नहीं रहा लेकिन दिल का प्यार रहा। क्योंकि मोह उसको कहा जाता है जिसमें अपना स्वार्थ हो। तो ब्रह्मा बाप का अपना स्वार्थ नहीं रहा, लेकिन बच्चों में सेवा अर्थ अति स्नेह रहा। फिर भी साथ रहते, बच्चों को सामने देखते भी कोई देह के रूप में याद सताई नहीं। एकदम न्यारा और प्यारा रहा। इसलिए कहा जाता है स्मृति स्वरूप नष्टोमोहा। कोई मेरापन नहीं रहा, देहभान से भी नष्टोमोहा। तो ये दिवस ऐसे फॉलो फादर का पाठ पढ़ाने का दिवस रहा।

तो आज का दिवस ऐसा नहीं है जैसे लोग मनाते हैं – चला गया, चला गया। लेकिन उमंग-उत्साह आता है कि फॉलो फादर, हम भी ऐसे स्मृति स्वरूप नष्टोमोहा बनें। ये प्रैक्टिकल पाठ पढ़ने का दिवस है

चाहे बातें ऐसी होती हैं जो कभी आपके स्वप्न में भी नहीं होती और कई बातें ऐसे होती हैं जो अज्ञान काल में नहीं होगी लेकिन ज्ञान के बाद हुई हैं, अज्ञानकाल में कभी बिज़नेस नीचे-ऊपर नहीं हुआ होगा और ज्ञान में आने के बाद हो गया, घबरा जाते हैं – हाय, ज्ञान छोड़ दें! लेकिन कोई भी परिस्थिति आती है उस परिस्थिति को अपना थोड़े समय के लिये शिक्षक समझो। शिक्षक क्या करता है? शिक्षा देता है ना! तो परिस्थिति आपको विशेष दो शक्तियों के अनुभवी बनाती है – एक-सहनशक्ति, न्यारापन, नष्टोमोहा और दूसरा-सामना करने की शक्ति का पाठ पढ़ाती है जिससे आगे के लिए आप सीख लो कि ये परिस्थिति, ये दो पाठ पढ़ाने आई है। और जो कहते रहते हो हम तो ट्रस्टी हैं, मेरा कुछ नहीं है, ठगी से तो नहीं कहते! दिल से कहते हो? ट्रस्टी हो कि थोड़ा गृहस्थी हो? कभी गृहस्थी बन जाते कभी ट्रस्टी बन जाते?

सब अच्छा है और अच्छा होना ही है, निश्चिन्त है – इसको कहा जाता है समर्थ स्वरूप। तो आज का दिन कौन सा है? समर्थ बनने का, नष्टोमोहा होने का।


सर्व सम्बन्ध का अनुभव है कि कोई-कोई सम्बन्ध का अनुभव है? सर्व सम्बन्ध से बाप को अपना बनाया है कि कोई सम्बन्ध किनारे रख दिया है? सर्व हैं कि एक-दो में अटेन्शन जाता है? कोई का भाई में, कोई का बच्चे में, कोई का पोत्रे में! नहीं? निभाना अलग चीज़ है, आकर्षित होना अलग चीज़ है। तो नष्टोमोहा हो? पाण्डवों को पैसे कमाने में मोह नहीं है? ट्रस्टी होकर कमाना अलग चीज़ है। लगाव से कमाना, मोह से कमाना अलग चीज़ है

बाद विनाश होता है, दस वर्ष लगते हैं या 50 वर्ष लगते हैं.. ये नहीं आता? नष्टोमोहा बनकर, ट्रस्टी बनकरके चलना और मोह से चलना कितना अन्तर है! नष्टोमोहा की निशानी क्या होगी? कभी कमाने में, धन सम्भालने में दु:ख की लहर नहीं आयेगी। कभी कम, कभी जयादा में दु:ख की लहर आती है? पोत्रा-धोत्रा थोड़ा बीमार हो गया तो दु:ख की लहर आती है? नष्टोमोहा हैं? कुछ भी हो जाये बेफ़्रिक हो? नष्टोमोहा अर्थात् दु:ख और अशान्ति का नाम-निशान नहीं। ऐसे हो या बनना है? तो एक बल, एक भरोसा अर्थात् जरा भी दु:ख के लहर की हलचल नहीं हो। सदा ये स्मृति स्वरूप हो कि सदा एक बल, एक भरोसे वाले हैं और आगे भी सदा रहेंगे। खुशी रहे कि मैं ही था, मैं ही हूँ और मैं ही बनूँगा। अच्छा!

योगयुक्त आत्मा स्वत: ही सेफ हो जाती है। तो बाम्बे वाले डरते तो नहीं हैं ना कि सागर आ जायेगा! पहले से ही नष्टोमोहा हो गये।


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 बाप के हवाले कर लिया अर्थात् नष्टोमोहा हो गये? पाण्डव नष्टोमोहा हैं? अच्छा नष्टो क्रोध हैं? नष्टो रोब हैं या थोड़ा-थोड़ा रोब आ जाता है? अधिकारी समझते हैं तो रोब आ जाता है। तो सिर्फ नष्टोमोहा नहीं, नष्टोक्रोध भी होना है। रोब भी नहीं। निर्मान। तो इस वर्ष क्या करेंगे? थोड़ा-थोड़ा रोब को छुट्टी देंगे? साल पूरा हुआ, रोब भी पूरा हुआ कि कभी-कभी उसको दोस्त बना लेंगे? काम की चीज़ नहीं है ना। ऐसे तो नहीं रोब तो करना पड़ेगा ना!

तो नष्टोमोहा अर्थात् न्यारा और प्यारा। रहते हुए भी न्यारा। तो मातायें सभी हिम्मत वाली हो? इस वर्ष में मोह नहीं आयेगा? मोह तो आधा कल्प का साथी है, ऐसे कैसे चला जायेगा! देख लिया ना नष्टोमोहा बनने से क्या होता और मोह रखने से क्या होता? तो देखेंगे अभी इस नये वर्ष में क्या कमाल करते हैं?

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‘‘समय के महत्व को जान, कर्मों की गुह्य गति का अटेन्शन रखो, नष्टोमोहा, एवररेडी बनो’’ ।

ै वा सिर्फ पास है? तीव्र पुरूषार्थी के लक्षण विशेष दो हैं – एक – नष्टोमोहा, दूसरा – एवररेडी। सबसे पहले नष्टोमोहा, इस देहभान, देह-अभिमान से है तो और बातों में नष्टोमोहा होना कोई मुश्किल नहीं है। देह-भान की निशानी है वेस्ट, व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ समय, यह चेकिंग स्वयं ही अच्छी तरह से कर सकते हो। साधारण समय वह भी नष्टोमोहा होने नहीं देता। तो चेक करो हर सेकण्ड, हर संकल्प, हर कर्म, सफल हुआ? क्योंकि संगमयुग पर विशेष बाप का वरदान है, सफलता आपका जन्म सिद्ध अधिकार है। तो अधिकार सहज अनुभूति कराता है। और एवररेडी, एवररेडी का अर्थ है- मन-वचन-कर्म, सम्बन्ध-सम्पर्क में समय का आर्डर हो अचानक तो एवररेडी और अचानक ही होना है। जैसे अपनी दादी को देखा अचानक एवररेडी। हर स्वभाव में, हर कार्य में इजी रहे हैं। सम्पर्क में इजी, स्वभाव में इजी, सेवा में इजी, सन्तुष्ट करने में इजी, सन्तुष्ट रहने में इजी।

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नष्टोमोहा बनने की सहज युक्ति कौनसी है? सदैव अपने घर की स्मृति में रहो। आत्मा के नाते, आपका घर ‘परमधाम’ है और ब्राह्मण जीवन के नाते, साकार सृष्टि वृक्ष में यह ‘मधुबन’ आपका घर है, क्योंकि ब्रह्मा बाप का घर मधुबन है। यह दोनों ही घर स्मृति में रहे, तो नष्टोमोहा हो जायेंगे। क्योंकि जब अपना परिवार, अपना घर कोई बना लेते तो उसमें मोह जाता, अगर उसको दफ्तर समझो तो मोह नहीं जाएगा।

सदैव बुद्धि में रहे, सेवा स्थान पर सेवा के निमित्त रूप आत्माएं हैं – न कि मेरा कोई लौकिक परिवार है। सब अलौकिक सेवाधारी हैं; कोई सेवा करने के निमित्त हैं, कोई की सेवा करनी है। लौकिक सम्बन्ध भी सेवा के अर्थ मिला है – ‘यह मेरा लड़का या लड़की है’ नहीं। सेवा के निमित्त यह सम्बन्ध मिला है। मैं पति हूँ, पिता हूँ, चाचा हूँ – यह सम्बन्ध समाप्त हो जाए, तो ट्रस्टी हो जायेंगे। स्मृति विस्मृति का रूप तब लेती जब मेरापन है। अगर मेरापन खत्म हो जाए, तो नष्टोमोहा हो जाएंगे। ‘नष्टोमोहा अर्थात् स्मृति स्वरूप।’

माताओं का सबसे बड़ा पेपर ही ‘मोह’ का है। अगर माताएं नष्टोमोहा हो गई तो नम्बर आगे ही जाएंगी। पांडवों को नम्बर वन बनने के लिए कौनसा पुरूषार्थ करना है? पांडव अगर एकरस स्थिति में एकाग्र बुद्धि हो गए तो नम्बर वन हो जाएंगे। पांडवों की बुद्धि यहाँ-वहाँ भागने में तेज होती है, तो पांडवों की बुद्धि एकाग्र हुई तो नम्बर वन। वैसे भी पांडवों को घर में एक स्थान पर बैठने की आदत नहीं होती, स्थिर होकर नहीं बैठेंगे – चलेंगे, उठेंगे यह आदत होती है। बुद्धि को भी भागने की आदत पड़ जाती। उसका असर बुद्धि पर भी आ जाता है। ऐसे तो नहीं समझते चक्रवर्ती बनना है तो यही चक्र लगावें। यह व्यर्थ चक्र नहीं लगाओ। स्वदर्शन चक्रधारी बनो, परदर्शन चक्रधारी नहीं।

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पहला त्याग है – अपने देह की स्मृति का त्याग। दूसरा देह के सम्बन्ध का त्याग। देह के सम्बन्ध में पहली बात कर्मेंन्द्रियों के सम्बन्ध की सुनाई – क्योंकि 24 घण्टे का सम्बन्ध इन कर्मेन्द्रियों के साथ है। इन्द्रियजीत बनना, अधिकारी आत्मा बनना यह दूसरा कदम। इसका स्पष्टीकरण भी सुना। अब तीसरी बात यह है – देह के साथ व्यक्तियों के सम्बन्ध की। इसमें लौकिक तथा अलौकिक सम्बन्ध आ जाता है। इन दोनों सम्बन्ध में महात्यागी अर्थात् ‘नष्टोमोहा’। नष्टोमोहा की निशानी – दोनों सम्बन्धों में न किसी में घृणा होगी, न किसी में लगाव वा झुकाव होगा। अगर किसी से घृणा है तो उस आत्मा के अवगुण वा आपके दिलपसन्द न करने वाले कर्म बारबार आपकी बुद्धि को विचलित करेंगे, न चाहते भी संकल्प में, बोल में, स्वप्न में भी उसी का उल्टा चिन्तन स्वत: ही चलेगा।

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असली एड्रेस क्या है? बाम्बे है, राजस्थान है, बैंगलोर है… क्या है? नष्टोमोहा बनने की यही सहज युक्ति है कि मेरा घर नहीं समझो। मेरा घर है, मेरा परिवार है- तो नष्टोमोहा नहीं हो सकेंगे। सेवा-स्थान है, घर मधुबन है। तो सदा घर में रहते हो या सेवा-स्थान पर रहते हो? सेवा-स्थान समझने से नष्टोमोहा हो जायेंगे। मेरी जिम्मेवारी, मेरा काम है, मेरा विचार यह है, मेरी फर्ज-अदाई है…-ये सब मोह उत्पन्न करता है। सेवा के निमित्त हूँ। जो सच्चा सेवाधारी होता है उसकी विशेषता क्या होती है? सेवाधारी सदा अपने को निमित्त समझेगा, मेरा नहीं समझेगा। और जितना निमित्त भाव होगा उतना निर्मान होंगे, जितना निर्मान होंगे उतना निर्माण का कर्तव्य कर सकेंगे। निमित्त भाव नहीं तो देह-भान से परे निर्मान बन नहीं सकेंगे।

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3. सर्व सम्बन्धों का रस एक बाप से लेने वाले ही नष्टोमोहा – बाप को सर्व सम्बन्धों से अपना बना लिया है? सिर्फ बाप के सम्बन्ध से नहीं लेकिन सर्व सम्बन्ध बाप के साथ हो गये अपना बनाना अर्थात् बाप का खुद बनना। तो सर्व सम्बन्ध से एक बाप दूसरा न कोई, जिसके सर्व सम्बन्ध बाप के साथ हो गये उसका शेष गुण क्या दिखाई देगा? वह सदा निर्मोही होगा। जब किसीं तरफ लगाव अर्थात् झुकाव नहीं तो माया से हार हो नहीं सकती। ऐसे नष्टोमोहा बनना अर्थात् सदा स्मृति स्वरूप। सदैव अमृतवेले यह स्मृति में लाओ कि सर्व सम्बन्धों का सुख हर रोज बाप दादा से लेकर औरों को भी दान देंगे। हर सम्बन्ध का सुख लो। सर्व सुखों के अधिकारी बन औरों को भी बनाओ। ऐसे अधिकारी समझने वाले सदा बाप को अपना साथी बनाकर चलते हैं। जो भी काम हो तो साकार साथी न याद आवे पहले बाप याद आवे। सच्चा मित्र भी तो बाप हैं ना, ऐसे सच्चे साथी का साथ लो तो सहज ही सर्व से न्यारा और प्यार बन जायेंगे। एक बाप से लगन है तो नष्टोमोहा हैं।

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असली एड्रेस क्या है? बाम्बे है, राजस्थान है, बैंगलोर है… क्या है? नष्टोमोहा बनने की यही सहज युक्ति है कि मेरा घर नहीं समझो। मेरा घर है, मेरा परिवार है- तो नष्टोमोहा नहीं हो सकेंगे। सेवा-स्थान है, घर मधुबन है। तो सदा घर में रहते हो या सेवा-स्थान पर रहते हो? सेवा-स्थान समझने से नष्टोमोहा हो जायेंगे। मेरी जिम्मेवारी, मेरा काम है, मेरा विचार यह है, मेरी फर्ज-अदाई है…-ये सब मोह उत्पन्न करता है। सेवा के निमित्त हूँ। जो सच्चा सेवाधारी होता है उसकी विशेषता क्या होती है? सेवाधारी सदा अपने को निमित्त समझेगा, मेरा नहीं समझेगा। और जितना निमित्त भाव होगा उतना निर्मान होंगे, जितना निर्मान होंगे उतना निर्माण का कर्तव्य कर सकेंगे। निमित्त भाव नहीं तो देह-भान से परे निर्मान बन नहीं सकेंगे। इसलिए सेवाधारी अर्थात् समर्पणता। सेवाधारी में अगर समर्पण भाव नहीं तो कभी सेवा सफल नहीं हो सकती, मेरापन का भाव सफलता नहीं दिलायेगा।

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