“संगमयुगी ब्राह्मण जीवन में पवित्रता का महत्त्व” 

“संगमयुगी ब्राह्मण जीवन में पवित्रता का महत्त्व”

भारत में पवित्रता सुख शान्ति सम्पत्ति सब कुछ था। पवित्रता नहीं है तो न शान्ति है, न सुख है।  जहाँ पवित्रता है वहाँ शान्ति है।

पवित्रता सुख-शान्ति की जननी है’। अर्थात् जहाँ पवित्रता होगी वहाँ सुख-शांति की अनुभूति अवश्य होगी।

चाहे संकल्प से, चाहे वृति से, वायुमण्डल से, वाणी से, सम्पर्क से सुख- शान्ति की जननी बनना – इसको कहते हैं – ‘पवित्र आत्मा’।  किसी भी कारण से दु:ख का जरा भी अनुभव होता है तो सम्पूर्ण पवित्रता की कमी है।

बाप का वरदान पवित्रता है रावण का श्राप अपवित्रता है।

निजी संस्कार पवित्र हैं। संगदोष के संस्कार अपवित्रता के हैं।

पवित्रता   अपनी निजी वस्तु है।  पराई चीज अपवित्रता है,

स्व-स्वरूप पवित्र है, स्वधर्म पवित्रता है अर्थात् आत्मा की पहली धारणा पवित्रता है। स्वदेश पवित्र देश है। स्वराज्य पवित्र राज्य है। स्व का यादगार परम पवित्र पूज्य है।

पवित्र संकल्प ब्राह्मणों की बुद्धि का भोजन है। पवित्र दृष्टि ब्राह्मणों के आँखों की रोशनी है। पवित्र कर्म ब्राह्मण जीवन का विशेष धन्धा है। पवित्र सम्बन्ध और सम्पर्क ब्राह्मण जीवन की मर्यादा है।

सम्पूर्ण पवित्रता’ ही ब्राह्मण जीवन की पर्सनालिटी है ।

पवित्रता संगमयुगी ब्राह्मणों के महान जीवन की महानता है। पवित्रता ब्राह्मण जीवन का श्रेष्ठ श्रृंगार है।’ जैसे स्थूल शरीर में विशेष श्वास चलना आवश्यक है। श्वास नहीं तो जीवन नहीं। ऐसे ब्राह्मण जीवन का श्वास है – पवित्रता’। 21 जन्मों की प्रालब्ध का आधार अर्थात् फाउण्डेशन पवित्रता है। आत्मा अर्थात् बच्चे और बाप से मिलन का आधार ‘पवित्र बुद्धि’ है। सर्व संगमयुगी प्राप्तियों का आधार पवित्रता’ है। पवित्रता, पूज्य-पद पाने का आधार है।

ब्राह्मण जीवन का शृंगार – पवित्रता’.  पवित्रता द्वारा सदा स्वयं को भी खुश अनुभव करते और दूसरों को भी खुशी देते।

जैसे कर्मों की गति गहन है, पवित्रता की परिभाषा भी बड़ी गुह्य है और पवित्रता ही फाउण्डेशन है।

 

ब्रह्मचारी रहे या निर्मोही हो गये – सिर्फ इसको ही पवित्रता नहीं कहेंगे। पवित्रता ब्राह्मण जीवन का शृंगार है।

पूजनीय बनने का विशेष आधार पवित्रता के ऊपर है। जितना सर्व प्रकार की पवित्रता को अपनाते हैं, उतना ही सर्व प्रकार के पूजनीय बनते हैं और जो निरन्तर विधिपूर्वक आदि, अनादि विशेष गुण के रूप से पवित्रता को सहज अपनाते हैं, वही विधिपूर्वक पूज्य बनते हैं।

 

सर्व प्रकार की पवित्रता क्या है? जो आत्मायें सहज, स्वत: हर संकल्प में, बोल में, कर्म में सर्व अर्थात् ज्ञानी और अज्ञानी आत्मायें, सर्व के सम्पर्क में सदा पवित्र वृत्ति, दृष्टि, वायब्रेशन से यथार्थ सम्पर्क-सम्बन्ध निभाते हैं – इसको ही सर्व प्रकार की पवित्रता कहते हैं।

Mansa

इसी आधार पर स्वयं को चैक करो – मंसा संकल्प में पवित्रता है, उसकी निशानी – मन्सा में सदा सुख स्वरूप, शान्त स्वरूप की अनुभूति होगी। अगर कभी भी मंसा में व्यर्थ संकल्प आता है तो शांति के बजाय हलचल होती है। क्यों और क्या इन अनेक क्वेश्चन के कारण सुख स्वरूप की स्टेज अनुभव नहीं होगी। यह होना चाहिए, यह नहीं होना चाहिए, यह कैसे, यह ऐसे। इन बातों को सुलझाने में ही लगे रहेंगे।

किसी भी आत्मा की जरा भी कमज़ोरी अर्थात् अशुद्धि अपने संकल्प में धारण हुई तो वह अशुद्धि अन्य आत्मा को सुख-शान्ति की अनुभूति करा नहीं सकेगी। या तो उस आत्मा के प्रति व्यर्थ वा अशुद्ध भाव है वा अपनी मंसा पवित्रता की शक्ति में परसेन्टेज की कमी है।

मंसा पवित्रता की शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है – प्रकृति का भी परिवर्तन। स्व परिवर्तन से प्रकृति का परिवर्तन। प्रकृति के पहले व्यक्ति। तो व्यक्ति परिवर्तन और प्रकृति परिवर्तन – इतना प्रभाव है मंसा पवित्रता की शक्ति का।

 

Swapn

सम्पूर्ण पवित्रता का अर्थ ही है-स्वप्न-मात्र भी अपवित्रता मन और बुद्धि को टच नहीं करे। इसी को ही कहा जाता है सच्चे वैष्णव।

स्वप्न में भी स्वयं के प्रति या अन्य कोई आत्मा के प्रति सर्व प्रकार की पवित्रता में से कोई कमी न हो। मानो स्वप्न में भी ब्रह्मचर्य खण्डित होता है वा किसी आत्मा के प्रति किसी भी प्रकार की ईर्ष्या, आवेशता के वश कर्म होता या बोल निकलता है, क्रोध के अंश रूप में भी व्यवहार होता है तो इसको भी पवित्रता का खण्डन माना जायेगा। सोचो, जब स्वप्न का भी प्रभाव पड़ता है तो साकार में किये हुए कर्म का कितना प्रभाव पड़ता होगा! इसलिए खण्डित मूर्ति कभी पूजनीय नहीं होती। खण्डित मूर्तियाँ मन्दिरों में नहीं रहतीं, आजकल के म्यूजयम में रहती हैं। वहाँ भक्त नहीं आते। सिर्फ यही गायन होता है कि बहुत पुरानी मूर्त्तियाँ हैं, बस। उन्होंने स्थूल अंगों के खण्डित को खण्डित कह दिया है लेकिन वास्तव में किसी भी प्रकार की पवित्रता में खण्डन होता है तो वह पूज्य-पद से खण्डित हो जाते हैं। ऐसे, चारों प्रकार की पवित्रता में खण्डन होता है तो पह पूज्य-पद से खण्डित हो जाते हैं। ऐसे, चारों प्रकार की पवित्रता विधिपूर्वक है तो पूजा भी विधिपूर्वक होती है।

 

पवित्रता की वृत्ति अर्थात् हर एक आत्मा प्रति शुभ भावना शुभ कामना।

जो दुनिया असम्भव कहती है उसको सहज सम्भव कर दिखाया वह है पवित्रता का व्रत। आप सभी ने पवित्रता का व्रत धारण किया है ना! बापदादा से परिवर्तन का दृढ़ संकल्प का व्रत लिया है। व्रत करना अर्थात् वृत्ति द्वारा परिवर्तन करना। क्या वृत्ति परिवर्तन की?

 

संकल्प किया हम सब भाई-भाई हैं इस वृत्ति परिवर्तन द्वारा कितनी बातों में भक्ति में भी व्रत लेते हैं लेकिन आप सबने बाप से दृढ़ संकल्प किया

 

दृष्टि हर एक आत्मा को आत्मिक स्वरूप में देखना स्वयं को भी सहज सदा आत्मिक स्थिति में अनुभव करना।

 

फुलस्टाप लगाकर सम्पूर्ण पवित्रता की धारणा कर, मन्सा सकाश द्वारा सुख-शान्ति की अंचली देने की सेवा करो’’ ।

 

हर समय पवित्रता के शृंगार की अनुभूति चेहरे से, चलन से औरों को हो। दृष्टि में, मुख में, हाथों में, पाँवों में सदा पवित्रता का शृंगार प्रत्यक्ष हो। कोई भी चेहरे तरफ देखे तो फीचर्स से उन्हें पवित्रता अनुभव हो। जैसे और प्रकार के फीचर्स वर्णन करते हैं, वैसे यह वर्णन करें कि इनके

फीचर्स से पवित्रता दिखाई देती है, मस्तक और नयनों में पवित्रता की झलक है, मुख पर पवित्रता की मुस्कराट है। और कोई बात उन्हें नजर न आये। इसको कहते हैं – पवित्रता के शृंगार से शृंगारी हुई मूर्त। समझा? पवित्रता की तो और भी बहुत गुह्यता है, वह फिर सुनाते रहेंगे।

चाहे दु:ख का नजारा भी हो लेकिन जहाँ पवित्रता की शक्ति है, वह कभी दु:ख के नजारे में दु:ख का अनुभव नहीं करेंगे लेकिन दु:ख-हर्त्ता सुख-कर्त्ता बाप समान दु:ख के वायुमण्डल में दु:खमय व्यक्तियों को सुख-शान्ति के वरदानी बन सुख-शान्ति की अंचली देंगे, मास्टर सुख-कर्त्ता बन दु:ख को रूहानी सुख के वायुमण्डल में परिवर्तन करेंगे। इसी को ही कहा जाता है – ‘दु:ख-हर्त्ता सुख-कर्त्ता।’

 

जैसे अभी जिस्मानी डॉक्टर्स और जिस्मानी हॉस्पिटल्स समय प्रति समय बढ़ते भी जाते हैं, फिर भी डॉक्टर्स को फुर्सत नहीं, हॉस्पिटल्स में स्थान नहीं। रोगियों की सदा ही क्यू लगी हुई होती है। ऐसे आगे चल हॉस्पिटल्स वा डॉक्टर्स के पास जाने का, दवाई करने का, चाहते हुए भी जा नहीं सकेंगे। मैजारिटी निराश हो जायेंगे तो क्या करेंगे? जब दवा से निराश होंगे तो कहाँ जायेंगे? आप लोगों के पास भी क्यू लगेगी। जैसे अभी आपके वा बाप के जड़ चित्रों के सामने ‘ओ दयालू, दया करो’ कहकर दया वा दुआ मांगते रहते हैं, ऐसे आप चैतन्य, पवित्र, पूज्य आत्माओं के पास ‘ओ पवित्र देवियों वा पवित्र देव! हमारे ऊपर दया करो’ – यह मांगने के लिए आयेंगे।

 

जैसे पवित्रता का सुख-शान्ति से गहरा सम्बन्ध है, ऐसे अपवित्रता का भी पांच विकारों से गहरा सम्बन्ध है। इसलिए कोई भी विकार का अंश-मात्र भी न रहे। इसको कहा जाता है पवित्रता

 

सहज, swabhavik, sada  पवित्रता को धारण करने वाली आत्मायें हो। क्योंकि हिम्मत बच्चों की और मदद सर्वशक्तिवान बाप की। इसलिए मुश्किल वा असम्भव भी सम्भव हो गया है और नम्बरवार हो रहा है।  drudta nahi, nambarvar ho jayengay.

जब भी अतीन्द्रिय सुख वा स्वीट साइलेन्स का अनुभव कम होता है, इसका कारण पवित्रता का फाउण्डेशन कमज़ोर है।

व्रत लेना अर्थात् मन में संकल्प करना और व्रत रखना अर्थात् स्थूल रीति से परहेज करना। चाहे खान-पान की, चाहे चाल-चलन की, लेकिन दोनों का लक्ष्य व्रत द्वारा वृत्ति को बदलने का है। आप सभी ने भी पवित्रता का व्रत लिया और वृत्ति श्रेष्ठ बनाई। सर्व आत्माओं के प्रति क्या वृत्ति बनाई? आत्मा भाई-भाई हैं, ब्रदरहुड-इस वृत्ति से ही ब्राह्मण महान आत्मा बने। यह व्रत तो सभी का पक्का है ना?

मेंयाद वा सेवा की सफलता का आधार है – पवित्रता। सिर्फ ब्रह्मचारी बनना – यह पवित्रता नहीं लेकिन पवित्रता का सम्पूर्ण रूप है – ब्रह्मचारी के साथ-साथ ब्रह्माचारी बनना। ब्रह्माचारी अर्थात् ब्रह्मा के आचरण पर चलने वाले, जिसको फॉलो फादर कहा जाता है क्योंकि फॉलो ब्रह्मा बाप को करना है। शिव बाप के समान स्थिति में बनना है लेकिन आचरण वा कर्म में ब्रह्मा बाप को फॉलो करना है। हर कदम में ब्रह्मचारी। ब्रह्मचर्य का व्रत सदा संकल्प और स्वप्न तक हो।

 

Jeevan mein pavitra ko kaise apnaye ?

 

  1. बाप को कम्पैनियन बनाया अर्थात्पवित्रता को सदा के लिए अपनाया।  ऐसे युगलमूर्त के लिए पवित्रता अति सहज है। पवित्रता ही नैचरल जीवन बन जायेगी। पवित्र रहूँ, पवित्र बनूँ, यह क्वेश्चन ही नहीं। ब्राह्मणों की लाइफ ही पवित्रता’ है। सदा कम्बाइन्ड रूप में रहें तो पवित्रता की छत्रछाया स्वत: रहेगी। जहाँ सर्वशिक्तवान बाप है वहाँ अपवित्रता स्वप्न में भी नहीं आ सकती है। सदा बाप और आप युगल रूप में रहो। सिंगल नहीं, युगल। सिंगल हो जाते हो तो पवित्रता का सुहाग चला जाता है। नहीं तो पवित्रता का सुहाग और श्रेष्ठ भाग्य सदा आपके साथ है। तो बाप को साथ रखना अर्थात् अपना सुहाग, भाग्य साथ रखना। तो सभी, बाप को सदा साथ रखने में अभ्यासी हो ना?

पवित्रता का अर्थ है – सदा बाप को कम्पैनियन (साथी) बनाना और बाप की कम्पनी में सदा रहना। कम्पैनियन बना दिया, ‘बाबा मेरा’ – यह भी आवश्यक है लेकिन हर समय कम्पनी भी बाप की रहे। इसको कहते हैं – ‘सम्पूर्ण पवित्रता।’ संगठन की कम्पनी, परिवार के स्नेह की मर्यादा, वह अलग चीज़ है, वह भी आवश्यक है। लेकिन बाप के कारण ही यह संगठन के स्नेह की कम्पनी है – यह नहीं भूलना है। परिवार का प्यार है, लेकिन परिवार किसका? बाप का। बाप नहीं होता तो परिवार कहाँ से आता? परिवार का प्यार, परिवार का संगठन बहुत अच्छा है लेकिन परिवार का बीज नहीं भूल जाए। बाप को भूल परिवार को ही कम्पनी बना देते हैं। बीच-बीच में बाप को छोड़ा तो खाली जगह हो गई। वहाँ माया आ जायेगी। इसलिए स्नेह में रहते, स्नेह देते-लेते समूह को नहीं भूलें। इसको कहते हैं पवित्रता

 

 

कई बच्चों को सम्पूर्ण पवित्रता की स्थिति में आगे बढ़ने में मेहनत लगती है। इसलिए बीच-बीच में कोई को कम्पैनियन बनाने का भी संकल्प आता है और कम्पनी भी आवश्यक है – यह भी संकल्प आता है। संन्यासी तो नहीं बनना है लेकिन आत्माओं की कम्पनी में रहते बाप की कम्पनी को भूल नहीं जाओ। नहीं तो समय पर उस आत्मा की कम्पनी याद आयेगी और बाप भूल जायेगा। तो समय पर धोखा मिलना सम्भव है क्योंकि साकार शरीरधारी के सहारे की आदत होगी तो अव्यक्त बाप और निराकार बाप पीछे याद आयेगा, पहले शरीरधारी आयेगा। अगर किसी भी समय पहले साकार का सहारा याद आया तो नम्बरवन वह हो गया और दूसरा नम्बर बाप हो गया! जो बाप को दूसरे नम्बर में रखते तो उसको पद क्या मिलेगा – नम्बर वन (एक) वा टू (दो)? सिर्फ सहयोग लेना, स्नेही रहना वह अलग चीज़ है, लेकिन सहारा बनाना अलग चीज़ है। यह बहुत गुह्य बात है। इसको यथार्थ रीति से जानना पड़े। कोई-कोई संगठन में स्नेही बनने के बजाए न्यारे भी बन जाते हैं। डरते हैं – ना मालूम फँस जाएँ, इससे तो दूर रहना ठीक है। लेकिन नहीं। 21 जन्म भी प्रवृत्ति में, परिवार में रहना है ना। तो अगर डर के कारण किनारा कर लेते, न्यारे बन जाते तो वह कर्म-संन्यासी के संस्कार हो जाते हैं। कर्मयोगी बनना है, कर्म-संन्यासी नहीं। संगठन में रहना है, स्नेही बनना है लेकिन बुद्धि का सहारा एक बाप हो, दूसरा कोई। बुद्धि को कोई आत्मा का साथ वा गुण वा कोई विशेषता आकर्षित नहीं करे। इसको कहते हैं – पवित्रता’।

 

आदि- अनादि स्वरूप ही पवित्रता है। जब स्मृति आ गई कि मैं आदि-अनादि पवित्र आत्मा हूँ। स्मृति आना अर्थात् पवित्रता की समर्था आना। Aadi –purity ka light ka taaj, double tajdhari atma hu. Pavitr duniya mein pavitr devi hu, devta hu. और आधाकल्प तो है ही पवित्र पालना। पवित्र दुनिया। तो आधाकल्प पवित्रता से पैदा होते, पवित्रता से पलते और आधाकल्प पवित्रता से पूजे जाते हैं।

 

 

  1. Anaadi – pavitrata ke sagar baba ki santaan mein pavitr aatma hu. Devtavom ka gayan hai sampoorn nirvikari.

 

 

  1. I am pure angel. Mein pavitra farista hu. Chalet firte ye abhyas kar sakte hai. Vishw ko pavitra ki kirney faila sakte hai.

 

  1. Baba ka hath merey sir par hai. Mein param pavitra atma hu. Pavitrata ki kirne apne poore shareer mein, kan kan mein, apne ghar, parivar mein.

 

  1. Eating and drinking. pure vibrations

 

  1. Madhuban mein Tower of Purity, pavitrata ka stambh.

 

  1. Poojy swaroop – humari poojy swaroop ke aagay poora sansar jhukta hai. President , prime minister…sabhi hath jodthey hai…

 

 पवित्र आत्मा को तीन विशेष वरदान मिलते हैं – एक स्वयं स्वयं को वरदान देता जो सहज बाप का प्यारा बन जाता। 2-वरदाता बाप का नियरेस्ट और डियरेस्ट बच्चा बन जाता इसलिए बाप की दुआयें स्वत: प्राप्त होती हैं और सदा प्राप्त होती हैं। तीसरा – जो भी ब्राह्मण परिवार के विशेष निमित्त बने हुए हैं उन्हों द्वारा भी दुआयें मिलती रहती। तीनों की दुआओं से सदा उड़ता रहता और उड़ाता रहता। तो आप सभी भी अपने से पूछो अपने को चेक करो तो पवित्रता का बल और पवित्रता का फल सदा अनुभव करते हो?

 

सर्व सम्पूर्ण पवित्रता के लक्ष्य तक पहुँचने वाले तीव्र पुरूषार्थी आत्माओं

हर समय पवित्रता के शृंगार में सजी हुई विशेष आत्माओं

सदा सम्पूर्ण पवित्रता द्वारा स्वयं और सर्व को सुख-शांति की अनुभूति कराने वाली

 

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